दिल्ली कोर्ट ने पत्रकार राणा अय्यूब (Rana Ayyub) के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया है। यह मामला एक वकील अमिता सचदेवा द्वारा दायर की गई शिकायत के आधार पर सामने आया है, जिसमें आरोप है कि अय्यूब ने हिंदू देवी-देवताओं का अपमान किया और भारत विरोधी भावना फैलाने के लिए अपने सोशल मीडिया पोस्ट का इस्तेमाल किया। आपको बता दे कि….अय्यूब ने भारतीय एकता और भारतीय सेना के खिलाफ शत्रुता बढ़ाने की कोशिश की और इसके लिए लगातार सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया।
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साइबर क्राइम रिपोर्टिंग
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अय्यूब के खिलाफ यह शिकायत राष्ट्रीय साइबर क्राइम रिपोर्टिंग पोर्टल पर 11 नवंबर, 2024 को दर्ज की गई थी। अमिता सचदेवा ने अपनी शिकायत में दावा किया कि अय्यूब ने जानबूझकर और दुर्भावनापूर्वक हिंदू धर्म के प्रतीकों का अपमान किया और भारतीय समाज में सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा दिया। इसके अलावा, सचदेवा ने आरोप लगाया कि अय्यूब के पोस्ट से भारत और उसके नागरिकों के प्रति शत्रुता फैलाने की कोशिश की गई।
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न्यायिक मजिस्ट्रेट ने लगाई धाराओं की लाइन
दिल्ली कोर्ट के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट हिमांशु रमन सिंह ने शिकायत की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया कि, अय्यूब के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए (विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना), 295ए (धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर ठेस पहुंचाना), और 505 (सार्वजनिक शरारत करने वाले बयान) के तहत मामला दर्ज किया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह पाया कि तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर अय्यूब के खिलाफ संज्ञेय अपराधों का खुलासा हुआ है, जिसके लिए एफआईआर दर्ज करना उचित है।
मामले की सही जांच
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इस मामले में सचदेवा ने आरोप लगाया कि, उनकी शिकायत के बावजूद पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की थी। इसके बाद, उन्होंने सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसमें एफआईआर दर्ज करने की मांग की गई। अदालत ने आवेदन स्वीकार करते हुए आदेश दिया कि पुलिस को इस मामले की निष्पक्ष जांच करनी चाहिए। अदालत का कहना था कि, आरोपों की गंभीरता को देखते हुए पुलिस को यह सुनिश्चित करना होगा कि मामले की सही तरीके से जांच की जाए।
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अदालत का कहना… शांति और सुरक्षा
अदालत ने यह भी कहा कि…..शिकायत में जो सबूत सामने आए हैं, वे ऐसे हैं जिन्हें बिना राज्य मशीनरी के हस्तक्षेप के जांचना मुश्किल होगा, और शिकायतकर्ता स्वयं इन तथ्यों का प्रमाण इकट्ठा करने की स्थिति में नहीं हो सकती है। इस निर्णय से यह साफ हो गया कि, यदि किसी व्यक्ति के खिलाफ गंभीर आरोप होते हैं, तो न्यायिक हस्तक्षेप जरूरी हो जाता है, खासकर जब आरोपों की प्रकृति सार्वजनिक शांति और सुरक्षा से जुड़ी होती है।