Ajmer Dargah controversy: राजस्थान के अजमेर में स्थित प्रसिद्ध ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह (Khwaja Moinuddin Chishti Dargah) एक बार फिर चर्चा में है। हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता द्वारा दायर याचिका में दावा किया गया है कि जहां आज दरगाह स्थित है, वह स्थान पहले शिव मंदिर था। राजस्थान की एक निचली अदालत ने इस याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है। यह विवाद ठीक उसी तरह है, जैसा हाल ही में यूपी के संभल में जामा मस्जिद (Sambhal Jama Masjid) को लेकर हुआ था।
कौन थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती?
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती एक महान सूफी संत थे, जिन्हें गरीब नवाज और सुल्तान-ए-हिंद के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म 1143 ईस्वी में ईरान (पर्शिया) के सिस्तान क्षेत्र में हुआ था। यह इलाका वर्तमान में ईरान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमाओं के पास स्थित है। ख्वाजा के पिता एक प्रतिष्ठित कारोबारी थे, लेकिन उनका झुकाव आध्यात्मिकता की ओर था। पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने सांसारिक मोह-माया त्याग कर आध्यात्मिक जीवन अपना लिया।
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कैसे हुआ भारत में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का आगमन?
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने अपनी आध्यात्मिक यात्रा के दौरान जाने-माने संत हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी से दीक्षा प्राप्त की। 52 साल की उम्र में उन्हें अपने गुरु से खिलाफत (आध्यात्मिक नेतृत्व) प्राप्त हुआ। इसके बाद उन्होंने मक्का-मदीना (Mecca-Medina) में हज यात्रा की और फिर मुल्तान के रास्ते भारत पहुंचे। भारत में उन्होंने अजमेर को अपना ठिकाना बनाया और यहीं से अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार शुरू किया।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का भारत आगमन 1192 ईस्वी के आसपास हुआ, जब मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली पर कब्जा किया था। अजमेर में ख्वाजा के आध्यात्मिक उपदेशों ने स्थानीय लोगों को ही नहीं, बल्कि राजाओं, रईसों और गरीब किसानों को भी प्रभावित किया। उनकी शिक्षाएं प्रेम, भाईचारे और ईश्वर की एकता पर आधारित थीं।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह का इतिहास
1236 ईस्वी में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का निधन हुआ और उन्हें अजमेर में दफनाया गया। उनकी कब्र को बाद में मुगल बादशाह हुमायूं ने दरगाह का रूप दिया। यह दरगाह आज इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। बड़ौदा के महाराजा ने दरगाह के ऊपर एक सुंदर आवरण बनवाया, जबकि मुगल शासकों ने इसका जीर्णोद्धार किया। मुगल सम्राट अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब सहित कई शासकों ने इस दरगाह पर जियारत की थी। यह दरगाह न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के सूफी अनुयायियों के लिए एक पवित्र स्थान है।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की पुण्यतिथि पर हर साल दरगाह में उर्स का आयोजन किया जाता है। यह एक ऐसा अवसर है, जब शोक मनाने के बजाय जश्न मनाया जाता है। सूफी अनुयायियों का मानना है कि यह दिन ख्वाजा के भगवान से मिलन का प्रतीक है। भारत में चिश्ती परंपरा की नींव ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने रखी थी। यह परंपरा ईश्वर के साथ एकात्मता (वहदत अल-वुजुद) और सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण पर जोर देती है। चिश्ती संत सांसारिक वस्तुओं को त्यागकर ईश्वर के चिंतन को प्राथमिकता देते हैं।
हिंदू सेना के दावें के बाद शुरू हुआ विवाद
हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने दावा किया है कि दरगाह के स्थान पर पहले एक शिव मंदिर था। उन्होंने इस संबंध में कोर्ट में याचिका दायर की, जिसे सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया गया है। याचिका में पुरातात्विक सर्वेक्षण की मांग की गई है, ताकि यह साबित किया जा सके कि दरगाह से पहले यहां मंदिर था।