What Is Polygraph Test:कोलकाता के आरजी कर अस्पताल में ट्रेनी डॉक्टर के साथ अत्याचार के आरोपी संजय रॉय का पॉलीग्राफ टेस्ट शुरू हो गया है। इस परीक्षण का उद्देश्य आरोपी की दावों और बयानों की सत्यता की जांच करना है। संजय रॉय पर आरोप है कि उसने अस्पताल में एक प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार किया। मामले की गंभीरता को देखते हुए पुलिस ने आरोपी का पॉलीग्राफ टेस्ट करने का निर्णय लिया है, जो कि अपराध की जांच में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
इस टेस्ट के परिणाम मामले की दिशा और जांच की गहराई को प्रभावित कर सकते हैं। पुलिस अधिकारियों का कहना है कि यह परीक्षण जांच के एक हिस्से के रूप में किया जा रहा है।अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या इससे सच का पता चल जाएगा? क्या ब्रेन मैंपिंग का नतीजा एक फुलप्रूव एविडेंस हैं?
पॉलीग्राफी टेस्ट क्या है?
फॉरेंसिक साइकोलॉजी डिवीजन के हेड डॉ. पुनीत पुरी के मुताबिक पॉलीग्राफी टेस्ट के लिए कोर्ट से मंजूरी लेने की जरूरत होती है। पॉलीग्राफ टेस्ट नार्को टेस्ट से अलग होता है। इसमें आरोपी को बेहोशी का इंजेक्शन नहीं दिया जाता है, बल्कि कार्डियो कफ जैसी मशीनें लगाई जाती हैं।
इन मशीनों के जरिए ब्लड प्रेशर, नब्ज, सांस, पसीना, ब्लड फ्लो को मापा जाता है। इसके बाद आरोपी से सवाल पूछे जाते हैं। झूठ बोलने पर वो घबरा जाता है, जिसे मशीन पकड़ लेती है। इस तरह का टेस्ट पहली बार 19वीं सदी में इटली के अपराध विज्ञानी सेसारे लोम्ब्रोसो ने किया था। बाद में 1914 में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक विलियम मैरस्ट्रॉन और 1921 में कैलिफोर्निया के पुलिस अधिकारी जॉन लार्सन ने भी ऐसे उपकरण बनाए।
पॉलीग्राफी टेस्ट में कही गई बातों का सबूत की तरह इस्तेमाल होता है?
2010 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पॉलीग्राफी टेस्ट में आरोपी की कही गई बातों को सबूत नहीं माना जाना चाहिए बल्कि यह सिर्फ सबूत जुटाने के लिए एक जरिया होता है। इसे ऐसे समझिए कि अगर पॉलीग्राफी टेस्ट में कोई हत्या का आरोपी मर्डर में इस्तेमाल हथियारों की लोकेशन बताता है, तो उसे सबूत नहीं माना जा सकता है। लेकिन, अगर आरोपी के बताए लोकेशन से हथियार बरामद हो जाता है तो फिर उसे सबूत माना जा सकता है।
इस मामले में कोर्ट ने यह भी कहा था कि हमें यह समझना चाहिए कि इस तरह के टेस्ट के जरिए किसी व्यक्ति की मानसिक प्रक्रियाओं में जबरन घुसपैठ करना भी मानवीय गरिमा और उसके निजी स्वतंत्रता के अधिकारों के खिलाफ है। ऐसे में ज्यादा गंभीर मामलों में ही कोर्ट की इजाजत से इस तरह के जांच होने चाहिए।
ऐसे टेस्ट सटीक हैं?
न तो पॉलीग्राफ परीक्षण और न ही नार्को टेस्ट वैज्ञानिक रूप से 100% सफल साबित हुए हैं। चिकित्सा क्षेत्र में भी यह विवादास्पद बने हुए हैं। हालांकि, जांच एजेंसियों इन्हें प्राथमिकता देती है क्योंकि संदिग्धों से सच्चाई उगलवाने के लिए इन्हें ‘थर्ड डिग्री’ के ‘नरम विकल्प’ के रूप में देखा जाता है।
किसी का भी किया जा सकता है टेस्ट?
2010 के मामले में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति आरवी रवींद्रन और जेएम पांचाल की सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि ‘आरोपी की सहमति के आधार को छोड़कर’ कोई भी झूठ पकड़ने वाला परीक्षण नहीं किया जाना चाहिए।
इसमें कहा गया है कि 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रकाशित ‘अभियुक्त पर पॉलीग्राफ टेस्ट करने के लिए दिशानिर्देश’ का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि व्यक्ति की सहमति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज की जानी चाहिए।