Bihar Culture News : सामा-चकेवा बिहार के मिथिलांचल का एक लोकपर्व है, जो बिहार के मिथिला-क्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं के द्वारा, प्रत्येक वर्ष, कार्तिक मास में, प्रसिद्ध छठ-पर्व के अगले दिन से, मनाया जाता है। वहीं आज हम आपको बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र से जु़ड़ा एक त्याहार के बारें मे बताएगें जिसके बारे में आप लोगों में से बहुत ही कम लोग जानते है। ये पर्व मिथिलांचल के लिए बेहद खास माना गया है, वहां के लोगों का इस त्याहार के बारे में कहना है कि ये पर्व बहन अपने भाई के लम्बें उम्र के लिए करती है। मिथिलांचल क्षेत्र का पुरातन परंपराओं से जुड़ा एक लोकपर्व है, इस पर्व को सामा चकेवा कहते है, वहीं इस पर्व की शुरूआत छठ के संपन्न होते ही शुरू हो जाता है। इस पर्व को भाई-बहन के प्यार के तौर पर मनाया जाता है।
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भाई उसे पिता द्वारा दिए गए सजा से मुक्त करवाता है
इस त्योहार का शुरूआत छठ महापर्व की समाप्ति के दिन से शुरू हो जाता है और यह कार्तिक पूर्णिमा को इसका समापन होता है। वैसे तो यह एक तरह से भाइयों और बहनों का त्योहार है, लेकिन इस पर्व में सामा चकेवा को मनाते समय , जो लोकगीत गाया जाता है, उसमें एक तरफ, ऐसा समाज है, जो महिलाओं को दास बनाये रखना चाहता है, लेकिन दूसरी ओर सामा के पिता उसे बुरी लड़की या यूं कहें कि बदचलन मानकर सजा देता है तो वहीं तीसरी तरफ सामा का भाई उसे इस समाज और पिता द्वारा दिए गए सजा से मुक्त करवाता है।
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वृन्दावन सहित चुगला को जालाया जाता है
बता दें कि इस खेलने के दौरान “वृन्दावन सहित चुगला को जालाया जाता है, उस दौरान बहन अपने भाई के उम्र के लिए एक दौहा पढ़ते है। जैसे कि ( “वृन्दावन में आगि लागल क्यो न बुझाबै हे, हमरो से बड़का भइया दौड़ल चली आबए हे, हाथ सुवर्ण लोटा वृन्दावन मुझावै हे) वहीं इस त्योहार को मानाने के दौरान आगल बगल की महिलाएं एक समूह में बैठतीं है। उस दौरान वह लोकगीत गाती को गाते हुए चुगले को जमकर कोसती है और खेल के अंत में चुगला और वृन्दावन को जला दिया जाता है।
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यह कहानी भाई-बहन के प्रेम की है
इस त्योहार के मानाने के दौरान सामा चकेवा खेलते वक्त महिलाएं एक समूह में बैठतीं है, उनके पास सामा, चकेवा और चुगला की मूर्ती होती है, खेल की शुरुआत में महिलाएं इस लोकगीत को गाते हुए चुगले को जमकर कोसती है और खेल के अंत में चुगले को जला दिया जाता है, सामा चकेवा के इस खेल में जो कहानी सुनाई जाती है, यह कहानी भाई-बहन के प्रेम की है।
आखिरी दिन किया जाता है इसका विसर्जन
बताया जाता है कि पौराणिक किस्से कहानियों में लोक-इतिहास छुपा होता है, और ऐसे में लड़कियों को मारने वाले इस समाज में दशकों से मानाया जाने वाला ये पर्व प्रगतिशीलता का एक बेमिसाल उदाहरण है, इस पर्व में महिलाएं, जिस किस्से को सुनाती है उसे सुनकर ये प्रतीत होता है कि अतीत एक तरह से वर्तमान से अधिक आधुनिक था। वहीं इस त्योहार को मनाते वक्त चकेवा की मूर्तियां होती हैं, जिन्हें बहुत ही प्रेम से पूजा में शामिल किया जाता है और आखिरी दिन पर इन्हीं का विसर्जन किया जाता है।