Mahoba: बुंदेलखंड का कश्मीर कहे जाने वाले चरखारी में मोहर्रम पर्व में वर्षों से निकाली जा रही इमाम हुसैन की सवारी का जुलूस अकीदत और आपसी सौहार्द के साथ निकाला गया। 168 सालों से निकल रही ईमाम की सवारी को देखने के लिए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित दिल्ली और अन्य राज्यों से भी श्रद्धालु बड़ी संख्या में पहुंचे हैं। हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक इमाम की सवारी से सभी धर्मों का खासा लगाव है। ऐसी मान्यता है कि इमाम हुसैन का घोड़ा जिस श्रद्धालु का प्रसाद खा लेता है उसकी मुराद पूरी हो जाती है और फिर अकीदतमंद चांदी का नीबू सवारी में चढ़ाते हैं। एडीएम और एएसपी ने इमाम की सवारी दुलदुल घोड़े को जलेबी खिलाकर जुलूस का शुभारंभ किया।
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दुलदुल निकालने की परंपरा निभाई गई
इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हसन और हुसैन सच्चाई और अपनी उम्मत के लिए कर्बला के मैदान में शहीद हुए थे। उनकी शहादत को याद कर सातवीं मोहर्रम में चरखारी कस्बे में 168 वर्षों से इमाम की सवारी दुलदुल निकालने की परंपरा निभाई गई है। यह दुलदुल सवारी घोड़ा इमाम हुसैन की शहादत को याद दिलाता है। इसी दुलदुल नाम के घोड़े पर बैठकर इमाम हुसैन कर्बला के मैदान में यजीदी फौज से हक और उम्मत के लिए सजदे में सर कटा कर इस्लाम की खातिर कुर्बान हो गए थे।
कस्बे के विभिन्न इमाम चौकों पर हाजिरी दी गई
चरखारी में इमाम की सवारी निकालने की परंपरा की शुरुआत चरखारी स्टेट के राजा मलखान जूदेव द्वारा 168 वर्ष पहले की गई थी। तब से लेकर आज तक इमाम हुसैन की सवारी निकालने की परंपरा निभाई जा रही है। जहां पाक घोड़ा दुलदुल को सजाकर कस्बे के विभिन्न इमाम चौकों पर हाजिरी दी गई। वर्षों से इसी श्रद्धा के साथ इमाम की सवारी निकलती है। जिसमें मुरादें करने जनपद ही नहीं बल्कि नजदीकी राज्यों से भी अकीदतमंद अपनी मन्नत लेकर यहां हाजिरी देते हैं और घोड़े को जलेबी खिलाकर मन्नत मांगते हैं।
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बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़
एडीएम रामप्रकाश और एएसपी सत्यम ने इमाम की सवारी घोड़ा को जलेबी खिलाकर और माला पहनकर जुलूस को रवाना किया जो सुबह 8:00 बजे तक कस्बे में निर्धारित स्थानों में घूमता रहा। इस मौके पर एडीएम राम प्रकाश ने कहा कि सच्चाई के रास्ते पर इमाम हुसैन ने अपने आप को कुर्बान कर दिया,सच के लिए सब कुछ लुटा दिया। उनके इस त्याग को सभी अपने जीवन में उतारे। उनकी इस याद की परंपरा का निर्वाहन करते हुए जुलूस को रवाना किया गया है.
‘ये परंपरा गंगा जमुनी तहजीब का जीता-जागता उदाहरण’
अपर पुलिस अधीक्षक सत्यम ने कहा कि 168 साल पुरानी ये परंपरा गंगा जमुनी तहजीब का जीता जागता उदाहरण है और उम्मीद है कि यह हमेशा से परंपरा शानो शौकत के साथ जीवित रहेगी. उन्होंने बताया कि इस ऐतिहासिक सवारी को देखने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है जिसके मद्देनजर पुलिस द्वारा सुरक्षा और यातायात के तहत भारी पुलिस बल तैनात किया गया है। सुरक्षा के लिए 17 इंस्पेक्टर, 50 उपनिरीक्षक, 33 महिला कांस्टेबल, 150 सिपाही, एक प्लाटून पीएसी, अग्निशमन फायर टेंडर सहित एलआईयू का स्टाफ सहित तीन ड्रोन कैमरों से सुरक्षा पर नजर भी बनाए हुए है।
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क्या है इसकी मान्यता ?
मान्यता है कि इमाम की इस सवारी से जो श्रद्धालू मन्नत करता है उसे अपनी मन्नत के लिए घोड़े के शरीर में लगे तीरों में नीबू लगाने का रिवाज है और जब श्रद्धालू कि मन्नत पूरी हो जाती है तो श्रद्धालू अगले साल इसी नीबू कि जगह चांदी और सोने का नीबू अपनी श्रद्धा के अनुसार इमाम कि सवारी में चढ़ाता है। यहां सोने के दूकानदार हिन्दू मुस्लिम एकता कि मिसाल पेश करते हुए इमाम कि सवारी में लगने वाले चांदी के नीबू कि बिक्री के लिए पूरा सहयोग करते है।
‘इमाम की सवारी से सभी की मन्नत पूरी होती’
जुलूस में चांदी सोने के नीबू की दुकान लगाए राजेश सोनी बताते है कि इमाम की सवारी से सभी की मन्नत पूरी होती है. यहां धर्म मे भेदभाव नही होता है। संतान, पत्नी, रोजगार, पारिवारिक मनोकामना के लिए नीबू दुलदुल घोड़ें में लगे तीरों में लगाकर मुराद माँगी जाती है जिसके पूरा होने पर चांदी या सोने का नीबू चढ़ाने की परंपरा है जिससे बड़ी संख्या में उसके चांदी के नीबू बिक जाते है और वो खुद आस्था रखकर नीबू चढ़ाता और मन्नत मांगता है उसकी इमाम हसन हुसैन में श्रद्धा है। वहीं हिंदू भाई जलेबी की दुकानें लगाकर इमाम की सवारी के प्रसाद का इंतजाम करते है जहां इमाम को मानने वाले जलेबी खरीदकर प्रसाद चढ़ाते है। ये नजारा गंगा जमुनी तहजीब की मिशाल बना है।
आपसी सौहार्द, भाईचारे की जीती-जागती मिसाल
बहरहाल कर्बला की जमीन पर शहीद हुए इमाम हसन और हुसैन की शहादत को दुनिया में अलग-अलग तरीके से याद किया जाता है लेकिन चरखारी में निकलने वाली इमाम की सवारी न केवल ऐतिहासिक है बल्कि आपसी सौहार्द, भाईचारे की भी जीती जागती मिसाल है। जिसमें 70 से 80 हजार श्रद्धालुओं की भीड़ धर्म,संप्रदाय,जात-पात से हटकर अपनी मनोकामना लेकर पहुंचती है और ये सिलसिला आज भी याद-ए-इमाम हुसैन को लोगों के दिलो में जीवित किए है।