महाराष्ट्र में सियासी लड़ाई पर, क्या कहता है दल-बदल कानून ?

Laxmi Mishra
By Laxmi Mishra

Input-MUSKAN

महाराष्ट्र: महाराष्ट्र में पवार vs पवार का सियासी संघर्ष जारी है. अजित पवार और शरद पवार के बीच NCP को लेकर अपना-अपना शक्ति प्रदर्शन कर रहे है. पिछले एक साल महाराष्ट्र की राजनीति में नए बदलाव और नए प्रयोग किए जा रहे है. पहले एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे से बगावती तेवर दिखाते हुए भाजपा के साथ गठबंधन करके सरकार बना ली थी. उस दौर में शिंदे ने ये दावा किया था उनके पास शिवसेना के 40 विधायक है. तब उद्धव ने बागी विधायकों को अयोग्य करार दिए जाने के लिए याचिका दाखिल कर दी है.

उसी महाराष्ट्र में इतिहास एक बार फिर से खुद को दोहरा रहा है, बस इस बार किरदार और परिवार अलग है. अब अजित पवार ने शरद पवार से बगावत कर ली है. दावा है कि उनके पास एनसीपी के करीब 40 यानी दो तिहाई से ज्यादा विधायकों का समर्थन है. वहीं शरद पवार भी अब अपने बागी विधायकों को अयोग्य ठहराने की अपील कर सकते हैं. इनकी अयोग्यता दल-बदल विरोधी कानून के तहत तय होगी.

क्या है ये दल-बदल कानून?

राजनितिक दल बदल पर रोक लगाने के लिए इस कानून को लाया गया था. इसके लिए 1985 में राजीव गांधी की सरकार में संविधान में 52वां संशोधन किया गया था. इस कानून के तहत उन सांसदों या विधायकों को आयोग्य घोषित किया जा सकता है, जो किसी राजनीति दल से चुनाव चिह्न से चुनाव जीतने के बाद खुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देते हैं, पार्टी लाइन के खिलाफ चले जाते हैं, पार्टी ह्विप के बावजूद वोट नहीं करते हैं, पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करते हैं.

1/3 समर्थन मिलने पर नहीं होगे अयोग्य

हालांकि इस कानून में एक अपवाद भी है. इसके तहत अगर किसी दल के एक तिहाई सदस्य अलग दल बनाना या किसी दूसरी पार्टी में विलय चाहते हैं तो उन पर अयोग्यता लागू नहीं होगा. दल बदल विरोधी कानून के प्रावधानों को संविधान की 10वीं अनुसूची में रखा गया है, लेकिन कानून बनने के बाद पहले जो दल-बदल एकल होता था, वह सामूहिक तौर पर होने लगा. इस कारण संसद को 2003 में 91वां संविधान संशोधन करना पड़ा. इसके तहत 10वीं अनुसूची की धारा 3 को खत्म कर दिया गया, जिसमें एक साथ एक-तिहाई सदस्य दल बदल कर सकते थे.

असली NCP किसी, छिड़ी जंग

अजित गुट के लिए अब एनसीपी के चुनाव चिह्न पर अपना दावा ठोक दिया है. उनका कहना है कि एनसीपी के 40 विधायक उनके साथ हैं. वैसे अजित द्वारा एनसीपी पर कब्जा कर पाना इतना आसान नहीं होगा. नियम के मुताबिक दोनों गुटों को खुद को असली एनसीपी साबित करने के लिए पार्टी के पदाधिकारियों, विधायकों और सांसदों का बहुमत हासिल होना जरूरी है. केवल बड़ी संख्या में विधायकों का सपोर्ट हासिल होने भर से पार्टी पर किसी का अधिकार साबित नहीं हो जाता. चुनाव आयोग सांसदों और पदाधिकारियों के समर्थन को भी ध्यान में रखते हुए यह फैसला लेगा.

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नियम के मुताबिक अजित खेमे को तुरंत एक अलग पार्टी की मान्यता नहीं मिल सकती. हालांकि, दल-बदल विरोधी कानून बागी विधायकों को तब तक सुरक्षा प्रदान करता है, जब तक वे किसी अन्य पार्टी में विलय नहीं कर लेते हैं या नई पार्टी नहीं बना लेते हैं. इसके बाद जब वे चुनाव चिह्न के लिए आयोग से संपर्क करते हैं, तो आयोग चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के आधार पर फैसला लेता है. लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य के मुताबिक चुनाव चिह्न के आवंटन पर निर्णय लेने से पहले चुनाव आयोग दोनों पक्षों को विस्तार से सुनेगा, पेश किए गए सबूतों को देखने के बाद यह तय करेगा कि कौन सा गुट असली पार्टी है.

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