Somnath Temple: गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित सोमनाथ मंदिर, भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में प्रथम स्थान रखता है। यह मंदिर न केवल धार्मिक नजरिएं से महत्वपूर्ण है बल्कि इसका इतिहास भी गौरवशाली और संघर्षपूर्ण रहा है। समय समय पर यह मंदि विध्वंस का शिकार बना, लेकिन हर बार इसका पुनर्निर्माण हुआ, जो इसकी कभी न समाप्त होने वाली आस्था का प्रतीक है।
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महादेव और चंद्र देव की कृपा

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चंद्रदेव (सोमराज) ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। कथा की मानें तो चंद्र देव को उनके ससुर राजा दक्ष प्रजापति ने श्राप दे दिया था, जिससे वे क्षय रोग से पीड़ित हो गए थे। इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की। भगवान शिव उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उन्हें श्राप से मुक्ति दी। चंद्रदेव ने प्रार्थना की कि शिव इसी स्थान पर सदा विराजमान रहें। तभी से इस स्थान को सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाने लगा।
मंदिर का इतिहास
सोमनाथ मंदिर का इतिहास केवल श्रद्धा का नहीं , बल्कि संघर्ष और पुनर्निर्माण का भी इतिहास है। मंदिर को बार बार तोड़ा गया और हर बार फिर से खड़ा किया गया। 649 ईस्वी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने इसका पुनर्निर्माण करवाया। 815 ईस्वी में सिंध के सूबेदार अल जुनैद द्वारा इसे तोड़ा गया, जिसे प्रतिहार शासक नागभट्ट ने फिर से बनवाया।
1025 ईस्वी में आक्रमणकारी महमूद गजनवी ने इस मंदिर को लूटा और ध्वस्त किया। इसके बाद गुजरात के भीमदेव और मालवा के भोजराजा ने पुन: निर्माण किराया। इसके बाद 1169 ईस्वी में चालुक्य राजा कुमारपाल ने इसे और ज्यादा भव्य रूप से बनवाया।
राष्ट्र को समर्पित
आपको बता दें कि 1947 में भारत की स्वतंत्रता और जूनागढ़ के भारत में विलय के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल ने इस मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया। उनके निधन के बाद, यह कार्य के.एम. मुंशी के निर्देशन में पूर्ण हुआ। इसके बाद 1 दिसंबर 1955 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इस भव्य मंदिर को राष्ट्र को समर्पित किया।
हवा में तैरता है शिवलिंग
इस पवित्र तीर्थ स्थल से जुड़ा एक रहस्यमयी तथ्य भी प्रचलित है। कुछ प्राचीन ग्रंथों और लेखकों के मुताबिक मंदिर का शिवलिंग पहले हवा में तैरता था। 13वीं सदी के लेखक जखारिया अल काजिनी ने अपनी पुस्तक ‘वंडर्स ऑफ क्रिएशन’ में उल्लेख किया है कि महमूद गजनवी ने जब मंदिर में प्रवेश किया, तो उसने शिवलिंग को जमीन और छत के बीच हवा में तैरते हुए देखा। इसे उस समय गुरुत्वाकर्षण से परे माना गया। लेकिन आधुनिक विज्ञान के पास इसका कोई पुक्ष्ता प्रमाण नहीं मिलता है।

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