सकट चौथ व्रत हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण व्रत है, जिसे खासकर महिलाएं अपने परिवार की सुख-समृद्धि और संतान सुख के लिए करती हैं। यह व्रत विशेष रूप से माघ माह के कृष्ण पक्ष की चौथ को मनाया जाता है। इस दिन विशेष रूप से व्रति महिलाएं भगवान गणेश और उनकी माता पार्वती की पूजा करती हैं, ताकि उनके घर में सुख-समृद्धि और संतान सुख आए। इसके अलावा, इस दिन एक खास कथा भी प्रचलित है, जो साहूकार और साहूकारनी के जीवन से जुड़ी हुई है। आइए जानते हैं इस व्रत की कथा और इसके महत्व के बारे में विस्तार से।
सकट चौथ व्रत का महत्व
सकट चौथ का व्रत माघ माह के कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि को किया जाता है, जो खासतौर पर महिलाएं संतान सुख और घर में सुख-समृद्धि के लिए करती हैं। इस दिन विशेष रूप से गोधूलि वेला में महिलाएं व्रत रखती हैं और भगवान गणेश की पूजा करती हैं। इस दिन को लेकर मान्यता है कि जो भी श्रद्धापूर्वक इस व्रत को करता है, उसके घर में दरिद्रता नहीं आती और संतान सुख की प्राप्ति होती है। खासकर, यह व्रत विशेष रूप से बच्चियों और माताओं के लिए बहुत फलदायक माना जाता है।

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सकट चौथ व्रत की कथा
बहुत समय पहले एक छोटे से गांव में एक साहूकार और उसकी पत्नी रहते थे। साहूकार का नाम धनराज था, और उसकी पत्नी का नाम रत्नावली था। धनराज बहुत ही दयालु और दानशील था, लेकिन उसकी पत्नी रत्नावली थोड़ी चंचल और गर्वीली थी। रत्नावली हमेशा यही सोचती थी कि उसका पति इतना दयालु क्यों है, जबकि गांव में बहुत सारे लोग उसका मजाक उड़ाते थे और उसे कमजोर समझते थे। रत्नावली को यह समझ नहीं आता था कि धनराज इतनी मेहनत के बावजूद अपनी सुख-शांति में कोई कमी क्यों नहीं महसूस करता।
एक दिन रत्नावली ने अपनी सखी से इस बारे में बात की और कहा, “हमारे पास इतना पैसा है, लेकिन घर में सुख-समृद्धि नहीं है। मुझे कुछ समझ में नहीं आता कि हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हम क्यों खुश नहीं हैं।” सखी ने रत्नावली को सलाह दी कि वह सकट चौथ का व्रत रखे। उसने बताया कि इस व्रत से भगवान गणेश और माता पार्वती की कृपा प्राप्त होती है और घर में सुख-समृद्धि आ सकती है। रत्नावली ने इस सलाह को मान लिया और व्रत करने का निर्णय लिया।
सकट चौथ के दिन रत्नावली ने पूरे श्रद्धा भाव से व्रत किया। वह पूरे दिन उपवासी रही और गोधूलि वेला में भगवान गणेश की पूजा की। पूजा के दौरान उसने भगवान से अपनी और अपने परिवार की समृद्धि की प्रार्थना की। भगवान गणेश ने उसकी प्रार्थना सुन ली और रात्रि को उसे स्वप्न में दर्शन दिए। भगवान गणेश ने कहा, “रत्नावली, तुम्हारे घर में जो दरिद्रता है, वह तुम्हारी मानसिक स्थिति के कारण है। तुम्हारे मन में अहंकार और गर्व ने तुम्हारी सुख-समृद्धि को रोक रखा था। अब तुम्हें अपने हृदय को शुद्ध करना होगा और अपनी सोच बदलनी होगी।”

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भगवान गणेश ने रत्नावली को यह भी कहा कि अगर वह सचमुच अपने जीवन में सुख और समृद्धि चाहती है, तो उसे अपने पति धनराज की तरह दयालु और त्यागी होना पड़ेगा। रत्नावली ने भगवान गणेश के संदेश को समझा और अगले ही दिन उसने धनराज से कहा, “मैंने भगवान गणेश से आशीर्वाद लिया है। अब मैं आपकी तरह दया और कर्तव्य निभाऊंगी।”
यह सुनकर धनराज बहुत खुश हुआ और उसने अपनी पत्नी से कहा, “तुम्हारा यह कदम हमारे जीवन में बहुत सकारात्मक बदलाव लाएगा।” कुछ ही महीनों में रत्नावली का व्यवहार बदलने लगा। उसने अपने अहंकार को त्याग दिया और भगवान गणेश की पूजा में अधिक रुचि लेने लगी। उसका जीवन अब एक नई दिशा में बढ़ने लगा। उसकी खुशी और संतुष्टि बढ़ने लगी, और उसके घर में समृद्धि आई।

क्या है कथा का संदेश?
यह कथा हमें यह सिखाती है कि भगवान गणेश और माता पार्वती की पूजा से न केवल हमें समृद्धि मिलती है, बल्कि हमारे जीवन के अहम पहलुओं में भी सुधार आता है। यह व्रत सिर्फ संतान सुख देने वाला नहीं है, बल्कि यह मानसिक शांति और संतुष्टि भी देता है। रत्नावली की तरह हमें भी अपने मन को शुद्ध करना चाहिए और अहंकार को त्यागना चाहिए। जब हम भगवान गणेश से सच्चे दिल से प्रार्थना करते हैं और अपने कर्मों में सुधार करते हैं, तो भगवान की कृपा से हमारे जीवन में सुख-समृद्धि आ सकती है।