लोकसभा चुनाव 2024: जानें बनारस सीट चुनाव का धार्मिक और राजसी इतिहास

Laxmi Mishra
By Laxmi Mishra

लोकसभा चुनाव 2024: आने वाले लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर सभी की नजरें बनी हुई हैं कि कौन कितना दांव मारेगा यह तो अभी तय नहीं किया जा सकता मगर चुनाव को लेकर जोरशोर से तैयारियां शुरू हो गई हैं। बता दें कि लोकसभा चुनाव 2024 के लिए अभी से सभी दलों ने तैयारी शुरू कर दी हैं और अपनी-अपनी रणनीति बनाने में जुट गए हैं। वहीं अगर देखा जाए तो लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी अहमियत होती है, क्योंकि यूपी में बाकी राज्यों के मुकाबले सबसे अधिक यानि की 80 सीटें हैं और कहा जाता हैं केंन्द्र की सरकार का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता हैं।

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वाराणसी का इतिहास

यूपी के 80 सीटों में से वाराणसी का अलग ही महत्व हैं वाराणसी का मूल नगर काशी था। वहीं अगर पौराणिक कथाओं की माने तो काशी नगर की स्थापना भगवान शिव ने लगभग 5000 वर्ष पूर्व हुई थी। यह पवित्र स्थल सप्तपुरियों में से एक हैं जिसका उल्लेख स्कंद पुराण, रामायण, महाभारत सहित प्राचीनतम ऋग्वेद सहित कई हिन्दू ग्रन्थों में नगर का उल्लेख आता है। वाराणसी संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है।

भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है। इसे ‘बनारस’ और ‘काशी’ भी कहते हैं। हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके शहर को बौद्ध और जैन धर्म में भी पवित्र माना जाता है। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी, श्री कशी विश्वनाथ मन्दिर एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है।

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बता करें वाराणसी शहर की तो यह कम से कम 3000 वर्ष पुराना तो माना ही जाता है। यह नगर मलमल और रेशमी कपड़ों, इत्रों, हाथी दाँत और शिल्प कला के लिये व्यापारिक एवं औद्योगिक केन्द्र रहा है। गौतम बुद्ध के जन्म 567 ई.पू. के काल मे, वाराणसी काशी राज्य की राजधानी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने नगर को धार्मिक, शैक्षणिक और कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र बताया है और इसका विस्तार गंगा नदी के किनारे 5 कि.मी. तक लिखा है। वाराणसी को मंदिरों का शहर, भारत की धार्मिक राजधानी, भगवान शिव की नगरी, दीपों का शहर, ज्ञान नगरी आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है।

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हिन्दुस्तानी शास्त्रीय का बनारस हैं घराना

बनारस को हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का घराना कहा जाता यह वाराणसी में ही जन्मा और विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था।

वहीं अगर बात करें वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं- जैसे कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय।

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काशी से बना वाराणसी और फिर बना बनारस

लोगों के मन में सवाल उठता रहता है कि आखिर क्यों वाराणसी को बनारस कहा जाता है। दरअसल लोगों में वाराणसी से ज्यादा बनारस लोकप्रिय है। हालांकि आधिकारिक तौर पर बनारस ज्यादा जगहों पर दर्ज नहीं है लेकिन दुनियाभर में मशहूर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी इस नाम पर मुहर लगाने के लिए काफी है। वहीं अब सरकार ने यहां मौजूद मड़ुआडीह रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर बनारस कर दिया है। इतिहास के पन्ने खंगाले तो मुगलकाल और अंग्रेजी शासन के दौरान इस शहर का आधिकारिक नाम बनारस ही था। शिव शंभू की नगरी काशी, बाबा भोले का धाम काशी, रौशनी का शहर काशी, बाबा विश्वनाथ का धाम काशी, मां गंगा के आशीर्वाद से हमेशा फलता-फूलता रहा ये शहर इतिहास के पन्नों में काशी के नाम से दर्ज है।

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इतिहासकारों की मानें तो वाराणसी का सबसे प्राचीन नाम काशी है। इस शहर को करीब तीन हजार साल से इस नाम से पुकारा जाता है, माना जाता है कि प्राचीनकाल में हुए एक राजा काशा के नाम पर शहर का नाम काशी पड़ा। वहीं ये भी मान्यता है कि काशी को कई बार काशिका से भी संबोधित किया जाता है। कशिका का मतलब होता है चमकता हुआ। भगवान शिव की नगरी हमेशा चमकती रही जिसे कशाते यानि रौशनी का शहर कहा जाता था। जिससे इसका नाम भी काशी हो गया, वहीं अगर पुराणों की बात करें तो पुराणों में वाराणसी की धार्मिक समृद्धि की चर्चा है। इस नगर को शिवपुरी के नाम से संबोधित किया गया है, तथा इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है।

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वहीं ब्रह्मपुराण में शिव पार्वती से कहते है ‘हे सुखवल्लभे, वरुणा और असी इन दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है और उससे बाहर किसी को नहीं बसना चाहिए।’’लोगों का ऐसा विश्वास था कि शिव के भक्तों के वाराणसी में रहने के कारण लौकिक एवं पारलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।

काशीभारतीय स्वतंत्रता आंदोलन

भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन में भी वाराणसी सदैव आगे रहा है। राष्ट्रीय आंदोलन में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों का योगदान हमेशा यादगार रहा है। इस नगरी को क्रांतिकारी सुशील कुमार लाहिड़ी, अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद तथा जितेद्रनाथ सान्याल सरीखे वीर सपूतों को जन्म देने का गौरव प्राप्त है। महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे विलक्षण महापुरुष के अतिरिक्त राजा शिव प्रसाद गुप्त, बाबूराव विष्णु पराड़कर, प्रकाश, डॉ. भगवान दास, लाल बहादुर शास्त्री, डॉ. संपूर्णानंद, कमलेश्वर प्रसाद, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुटबिहारी लाल जैसे महापुरुषों का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन बनारस की कहानी

  • 1782 में बनारस के राजा चैत सिंह की सेना ने चैत सिंह घाट की सीढ़ियों पर गवर्नर-जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स की सेना को पराजित किया था। राजा चैत सिंह से राजस्व के रूप में अत्यधिक राशि की माँग की गई थी। इस राशि का उपयोग अंग्रेज़ी सेना के विस्तार के लिए किया जाता, ताकि यह स्थानीय राज्यों के ऊपर नियंत्रण स्थापित कर सके। हैदराबाद के निज़ाम और मराठों से लड़ने के लिए तैयार की जा रही, ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना, का विस्तार करने के लिए, राजा को घुड़सवार सेना तैयार करने का भी आदेश दिया गया था। जब उन्होंने इनकार कर दिया, तो वॉरेन हेस्टिंग्स ने अपनी सेना राजा के महल में भेज दी, जहाँ उसकी सेना की राजा की सेना से मुठभेड़ और हार हुई। जब दोनों सेनाओं में लड़ाई हो रही थी, तब राजा भाग निकले और उन्होंने अगले कुछ वर्ष, अंग्रेज़ों को दबाने के लिए, अन्य शासकों के साथ गठबंधन करने में बिताए। हालांकि राजा के ये प्रयास अंततः असफल रहे, परंतु इनके कारण अंग्रेज़ वाराणसी में अपनी स्थिति को पूरी तरह से सुरक्षित महसूस नहीं कर पाए।
  • 1828 वाराणसी भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध के नेताओं में से एक – रानी लक्ष्मीबाई का जन्मस्थान है। वाराणसी के अस्सी घाट के निकट एक मुहल्ले में जन्मी, रानी लक्ष्मीबाई – जिनका नाम मणिकर्णिका तांबे था, जिसने, 1844 में झाँसी के राजा के साथ विवाह तक, अपना बचपन वाराणसी में ही बिताया था।
  • 1898 में, एनी बेसेंट ने वाराणसी में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की, जहाँ भारतीय विद्यार्थियों को हिंदू सभ्यता के मूल्यों के बारे में शिक्षित किया जा सके, और उनमें भारतीय होने पर गर्व की भावना विकसित की जा सके।
  • 1910 में, उन्होंने विश्वविद्यालय स्थापित करने का प्रस्ताव रखा, और जब ऐसा नहीं हो पाया, तब 1911 में, पंडित मदन मोहन मालवीय और अन्य लोगों के सहयोग से, सेंट्रल हिंदू कॉलेज बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का उत्पति केंद्र बन गया।
  • 1920 में शिव प्रसाद गुप्त द्वारा स्थापित, ‘आज’, हिंदी भाषा का दैनिक समाचार पत्र है जो आज भी प्रकाशित होता है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दशकों के दौरान, ‘आज’ ने, हो रही घटनाओं का आलेख करके और उनकी सूचना देकर, एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस समाचार पत्र के प्रकाशन के पीछे दो मुख्य कारण थे – पहला, हिंदी में गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता का सृजन, जो पाठकों को अपनी मातृभाषा के बारे में गर्व की भावना का अनुभव करने में मदद करे, और दूसरा, स्वराज अथवा स्वशासन के विचार के विषय में पाठकों को शिक्षित करना।
  • 1921 में शिव प्रसाद गुप्त, डॉ. भगवान दास और महात्मा गांधी द्वारा स्थापित, काशी विद्यापीठ, पूर्वी संयुक्त प्रांत में स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र था। विश्वविद्यालय भारतीय आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन गया, क्योंकि यह उन थोड़े से विश्वविद्यालयों में से एक था जो अंग्रेज़ भारत सरकार द्वारा शासित नहीं था, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं द्वारा शासित था। काशी विद्यापीठ के शिक्षकों और विद्यार्थियों ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने हेतु ग्रामीणों को जागरूक करने तथा संगठित करने के लिए प्रायः पूर्वी संयुक्त प्रांत के गाँवों के दौरे किए थे।
  • 1936 भारत माता मंदिर संभवतः वाराणसी के मंदिरों में सबसे अद्वितीय है। किसी देवी-देवता के बजाए, भारत माता को समर्पित, इस मंदिर का उद्घाटन 1936 में महात्मा गांधी ने किया था।इस मंदिर की पावन वस्तुएँ असाधारण हैं। मंदिर का आंतरिक भाग विभिन्न भारतीय लिपियों को दर्शाने वाले पैनलों से अलंकृत है, और केंद्रीय ‘गर्भगृह’ में भारतीय उपमहाद्वीप के अविभाजित मानचित्र की संगमरमर की प्रतिमा है, जो आज भी गेंदे के फूल की मालाओं से अलंकृत और अभिषिक्त की जाती है। भारत को समर्पित यह मंदिर हर साल स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाता है।

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जानें बनारस का जातीय समीकरण

बनारस में सबसे ज्यादा ओबीसी वोटर अगर बनारस के जातीय समीकरणों की बात करें तो यहां कुर्मी समाज के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा है। रोहनिया और सेवापुरी में कुर्मी मतदाता काफी संख्या में हैं। इसके अलावा ब्राह्मण और भूमिहारों की भी अच्छी खासी तादाद है। वाराणसी के लिए वैश्य, यादव और मुस्लिम मतदाताओं की संख्या भी जीत के लिए निर्णायक साबित होती है। यहां 3 लाख से ज्यादा गैर यादव OBC वोटर हैं। 2 लाख से ज्यादा वोटर कुर्मी जाति के हैं। 2 लाख वैश्य वोटर हैं। डेढ़ लाख भूमिहार वोटर हैं। इसके अलावा वाराणसी में एक लाख यादव और एक लाख अनुसूचित जातियों के वोटर हैं।

बनारस के संसद सदस्य

  • 1952 – रघुनाथ सिंह [ए-1] -भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
  • 1952 – त्रिभुवन नारायण सिंह [बी-2] -भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
  • 1957 – रघुनाथ सिंह -भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
  • 1962 – रघुनाथ सिंह -भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
  • 1967 – सत्य नारायण सिंह -भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)
  • 1971 – राजाराम शास्त्री -भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
  • 1977 – चन्द्रशेखर -जनता पार्टी
  • 1980 – कमलापति त्रिपाठी -भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
  • 1984 – श्यामलाल यादव -भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
  • 1989 – अनिल शास्त्री -जनता दल
  • 1991 – श्रीश चंद्र दीक्षित -भारतीय जनता पार्टी
  • 1996 – शंकर प्रसाद जयसवाल -भारतीय जनता पार्टी
  • 1998 – शंकर प्रसाद जयसवाल -भारतीय जनता पार्टी
  • 1999 – शंकर प्रसाद जयसवाल -भारतीय जनता पार्टी
  • 2004 – राजेश कुमार मिश्र -भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
  • 2009 – मुरली मनोहर जोशी -भारतीय जनता पार्टी
  • 2014 – नरेंद्र मोदी -भारतीय जनता पार्टी
  • 2019 – नरेंद्र मोदी -भारतीय जनता पार्टी

नरेंद्र मोदी का सफर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 1995 में भाजपा का राष्ट्रीय सचिव (national secretary) नियुक्त किया गया और वह गुजरात से दिल्ली पहुंचे। उन्होंने हरियाणा और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में बीजेपी के चुनाव अभियान का नेतृत्व भी किया। इसके एक साल बाद ही उनका प्रमोशन हो गया। पार्टी ने उन्हें महासचिव (संगठन) बनाया।

6 वर्षों तक केंद्रीय टीम में काम करने के बाद बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को फिर गुजरात वापस भेजा। 7 अक्टूबर 2001 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। राजकोट में उन्होंने कांग्रेस के अश्विनी मेहता को 14 हजार से अधिक मतों से चुनाव हरा दिया। आपको बता दें कि नरेंद्र मोदी का यह पहला चुनाव था। नरेंद्र मोदी 12 वर्षों तक गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहे।

इसके बाद वर्ष 2019 में भारतीय जनता पार्टी ने उनके नेतृत्त्व में दोबारा चुनाव लड़ा और इस बार पहले से भी ज्यादा बड़ी जीत हासिल हुई। पार्टी ने कुल 303 सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा के समर्थक दलों यानी राजग को कुल 352 सीटें प्राप्त हुईं। 30 मई 2019 को शपथ ग्रहण कर नरेन्द्र मोदी लगातार दूसरी बार प्रधानमन्त्री बने।

2019 के आम चुनाव में उनकी पार्टी की जीत के बाद, उनके प्रशासन ने जम्मू और कश्मीर की विशेष राज्य का दर्जा को रद्द कर दिया। उनके प्रशासन ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 भी पेश किया, जिसके परिणामस्वरूप देश भर में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए। मोदी के कार्यकाल में, भारत ने लोकतान्त्रिक बैकस्लेडिंग का अनुभव किया हैं।

बीजेपी की सत्ता यूपी से लेकर केंन्द्र तक अपना शासन चला रही हैं जिसके कारण अब विपक्ष ने गठबंधन करके I.N.D.I.A में शामिल भी हो गए हैं जिससे की बीजेपी की सत्ता को हटाया जा सकें फिलहाल चुनाव को लेकर तैयारी दोनों तरफ से जोरों से शुरू हो गई हैं, अब तो यह चुनाव रिजल्ट ही बताएगा की किसका दांव किस पर भारी पड़ेगा।

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